एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धय: |
प्रभवन्त्युग्रकर्माण: क्षयाय जगतोऽहिता: || 9||
एताम्-ऐसे; दृष्टिम् विचार; अवष्टभ्य-देखते हैं; नष्ट-दिशाहीन होकर; आत्मानः-जीवात्माएँ अल्प-बुद्धयः-अल्पज्ञान; प्रभवन्ति-जन्मते हैं; उग्र-निर्दयी; कर्माणः-कर्म; क्षयाय–विनाशकारी; जगतः-संसार का; अहिताः-शत्रु।
BG 16.9: ऐसे विचारों द्वारा पथ भ्रष्ट आत्माएँ अल्प बुद्धि और क्रूर कृत्यों के कारण संसार की शत्रु बन जाती हैं और इसके विनाश का कारण बनती हैं।
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आत्मज्ञान से वंचित आसुरी मनोवृति वाले लोग अपनी दूषित बुद्धि द्वारा विकृत विचार रखते हैं। इसका उदाहरण भौतिकवादी दार्शनिक चार्वाक का सिद्धांत है जिसने यह कहा
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः
"जब तक जीवित रहो आनन्द से रहो। अगर घी का सेवन करने से तुम्हें आनन्द मिलता है तब तुम ऐसा ही करो भले ही इसके लिए तुम्हें ऋण ही क्यों न लेना पड़े। जब शरीर का अंतिम संस्कार हो जाता है, तब तुम्हारा कोई अस्तित्व नहीं रहता और तुम पुनः लौट कर संसार में नहीं आते इसलिए तुम कर्मों के परिणाम की चिंता न करो।"
इस प्रकार से आसुरी मानसिकता वाले लोग आत्मा की नित्यता और कर्मों के प्रतिफल को अस्वीकार करते हैं ताकि वे स्वार्थ की पूर्ति और क्रूर कृत्य कर सकें। यदि उन्हें अन्य मनुष्यों पर शासन करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है, तब वे उन पर उसी प्रकार से अपने भ्रामक विचार थोपते हैं। वे अपने स्वार्थमय लक्ष्य का अनुग़मन करने में संकोच नहीं करते भले ही इसके परिणाम दूसरों के लिए दुःखद और संसार के लिए विनाशकारी हों। इतिहास गवाह है कि जो शासक सत्य के प्रतिकूल विचारों से प्रेरित थे वे मानव समाज को कष्ट प्रदान करने वाले और संसार के लिए विध्वंसकारी सिद्ध हुए।